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राकेश ‘कबीर’ की कविताओं में अन्याय, रूढ़िवाद और पाखंडों का विरोध देखने को मिलता है ! समीक्षा

लखनऊ, बृजेश प्रसाद

राकेश ‘कबीर’ (राकेश कुमार पटेल) हिंदी साहित्य जगत में एक बड़े युवा कवि और कहानीकार के रूप में उभरता हुआ प्रतिष्ठित नाम है | इनका जन्म उत्तर-प्रदेश के महाराजगंज जिले में 20 अप्रैल 1984 में एक किसान परिवार में हुआ था | प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा गाँव में ही सम्पन्न हुई |

उच्च शिक्षा गोरखपुर विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर और देश के प्रतिष्ठित संस्थान जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय नई दिल्ली से ‘भारतीय सिनेमा में प्रवासी भारतीय का चित्रण’ विषय पर एम.फिल और ‘ग्रामीण सामाजिक संरचना में निरंतरता और परिवर्तन’ विषय पर पीएचडी की उपाधि प्राप्त की | वर्तमान समय में वे उत्तर-प्रदेश में प्रशासनिक सेवा पद पर कार्यरत हैं |

 अध्ययन-मनन के दौरान से ही राकेश ‘कबीर’ देश-समाज, सामाजिक न्याय और जन समुदाय के लिए लिखते रहे | उनकी अब तक दो कविता संग्रह पहला ‘नदियाँ बहती रहेंगी’ और दूसरा ‘कुँवरवर्ती कैसे बहे’ एवं एक कहानी संग्रह ‘खानाबदोश सफ़र’ प्रकाशित हो चुका है |

 राकेश ‘कबीर’ की कविताओं में सामाजिक अन्याय, रूढ़ीवाद और पाखंडों का तीव्र विरोध देखने को मिलता है | वहीं श्रमजीवी समाज और जातीय भेदभाव के संदर्भों के प्रति गहरा राग एवं सामाजिक परिवर्तन के प्रति जन-चेतना और विश्वास उनकी कविताओं में प्रमुख आवाज बनकर उभरा है |

 आज देश कोरोना जैसी महामारी से जूझ रहा है | लॉक डाउन की प्रकिया निरंतर बढ़ रही है | आम आदमी, मजदुर, बेरोजगार युवा बेवस और लाचार है | उनके बदन के खून तेज सूर्य की रौशनी सौंख रही है | पैरों के झाले से वे कराह रहे हैं | गर्भवती स्त्री रास्ते पर प्रस्वव पीड़ा से तड़प रही है | मजदूर आज अपने परिवार के साथ घर वापसी के लिए अपने बच्चो, बेटियों और जरूरत की सामानों को अपने कंधो पर ढ़ोने के लिए विवश है | मजदूर-बूढ़े-बच्चे भूख और विस्थापन की पीड़ा से मर रहे हैं |

अतः वर्तमान समय में देश की स्थिति, व्यवस्था और प्रवासी मजदूरों के पलायन को देख कवि की कलम रूकती नहीं है | कवि अपने लेखनी के माध्यम से समाज के उस असहाय गरीब, मजदूर और पिछड़े जन समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है | कवि अपनी लेखनी के माध्यम से उस वर्ग के साथ इतना करीब से जुड़ता है कि जैसे समाज के इस बड़े से जन समुदाय का दुःख-दर्द कवि का स्वयं का दुःख-दर्द हो |

 रामजी यादव लिखते हैं – ‘राकेश की कविताओं का एक अवलोकन हमें उनके मनोलोक में ले जाता है जहाँ वे अपने समय के जीवन-जगत और उसके रोजमर्रा से अपने स्तर पर जूझते प्रतीत होते हैं और तब पता चलता है कि दरअसल उनके कवि-कर्म में रिश्तों, प्रेम, दाम्पत्य, दोस्तों, व्यस्ताओं, निजी जीवन के राग-द्वेषों और संघर्षो से लेकर प्रकृति, पर्यावरण, अजनबियत, नये राजनीतिक व्याकरण को आखों पर पट्टी बांधे पढ़ते हुए लोग, सामाजिक अन्याय और सांस्कृतिक अंधापन बांटते लोग, विनाशकारी विकास और उसके फलस्वरूप जीवन खोते लोग, प्रकृति और प्राणी तक शामिल हैं |’

कवि देश की व्यवस्था और सरकार की नितियों को देख कौंध जाता है | आजादी के इतने सालों  बाद भी देश में विकास की रफ़्तार धीमी दिखाई पड़ रही है | मसलन जिस तरह से आज समाज का बहुत बड़ा तबका अपने ही देश में एक राज्य से दूसरे राज्य में विस्थापन के लिए बाध्य हो रहा है | वह अत्यंत दयनीय और चिंताजनक है | कवि राकेश ‘कबीर’ अपनी कविता ‘शहर’ में इस दर्द को बखूबी दर्शाते हैं  –

‘सन्नाटे को तोड़ते

कभी-कभी कुछ नरमुंड

इधर-उधर भागते झुण्ड

खोजते हैं रोटी, रास्ता और घर |’

मंगलेश डबराल कभी अपनी कविता ‘शहर’ में लिखते हैं कि वे शहर देखने जाते हैं और वहाँ की चकाचौंध दुनिया में खोकर वहीं बस जाते हैं | वे फिर घर वापसी नहीं करते –

‘मैंने शहर को देखा और मुस्कुराया

वहाँ कोई कैसे रह सकता है

यह जानने मैं गया

और वापस न आया |’

लेकिन आज उनकी यह कविता उतनी प्रासंगिक सिद्ध नहीं जान पड़ती | आज समाज का बहुत बड़ा तबका गाँव-घर वापसी के लिए व्याकुल और होड़ मचा रखा है | देश की इस तरह की वर्तमान स्थिति देख कहा जा सकता है कि हम जिनता भी शहरी चकाचोंध दुनिया में खो जाये, वहाँ के ऐशो-आराम को जी ले पर ग्राम जीवन का सादापन, शुद्धता, प्रकृति, संस्कृति और गाँव की आपसी संबल को कभी भुलाया या ठुकराया नहीं जा सकता |

कोरोना महामारी से जितने लोग मरें होंगे या नहीं मरे होंगे, उससे अधिक लोग ऐसे कठिन दुःख-दर्द और हताश होकर मारे जायेंगे | बहुत लोग भोजन के बैगैर मारे जायेंगे | बहुत लोग अपने घर-परिवार से बिछडकर रहने कि विरह में मारे जायेंगे | इसके अलावा बहुत से ऐसे लोग हैं जो जहाँ फँसे है, वहाँ की असाध्य पीड़ा, दर्द और लाचारी को देख मारे जायेंगे |

कवि दिनकर ने लिखा था ‘श्वानो को मिलते दूध-भात, भूखे बच्चे अकुलाते हैं’ | इस भूख की पीड़ा कवि राकेश ‘कबीर’ के यहाँ भी देखी जा सकती है | वे जानते हैं कि भूख से अकुलाते गरीब, मजदूर, असहाय लोग, बुढ़े-बच्चे की स्थिति क्या हो सकती है | कवि की दृष्टि समाज और प्रवास कर रहे जन समुदाय के प्रति इतना सजग है कि ऐसा लगता है जैसे वह खुद उस चरित्र को जी रहा हो –

‘पत्थर-पत्थर/लोहा-लोहा

रोटियां-वोटियाँ-गोटियाँ/आह दर्द भरी सिसकियाँ

पैरों के छाले

भूखे पेट और सूखे निवाले |’

कवि की कविताएँ अमूमन उस दौर के भारत की विस्थापन भी याद दिला देती | जिसमें हजारो-लाखों की संख्या में लोग भूख और असहाय पीड़ा से मारे गये थे | कवि राकेश पटेल की कविताएँ आज के जीवन को भी कुछ उसी तरह चरित्रथार्थ करती है | उनकी कविताओं में समाज और विस्थापित कर रहे लोगों की विवसता, लाचारी और भूख की पीड़ा बहुत नजदीकी से दिखाई देती है |

आज देश में विस्थापन इस हद तक बढ़ गया है कि लोग अपनी प्राणों की बाजी लगा कर घर वापसी करने के लिए मजबूर हो रहे हैं | इस कोरोना काल में रोज सडक दुर्घटना जैसी स्थिति में लोगों का मारा जाना कवि मन को विचलित कर देता है | वे अपनी कविता ‘दर्द और आंसू’ में लिखते हैं –

‘दूरियां ज्यादा है/पाँव चल पाते हैं कम

हरारते ज्यादा हैं/राहते पड़ती हैं कम

जान देके भी आता नहीं/राह ताकता अपना घर |

इस तरह का दृश्य अब भय पैदा करने लगा है | यह भय अब मानव समाज को विचलित कर रहा है | यह विचलन कवि मन को तड़पाता है | मजदूरों का नरसंहार देख कवि का मन कसोटता है | आजादी के सत्तर साल बाद भी देश की स्थिति और व्यवस्था मजदुर-किसान, पिछड़े जन-समुदाय के प्रति बदली नहीं | मजदुर वर्ग आज भी रोजी-रोटी के लिए अपना गाँव-देश छोड़ बाहर की दुनियां में प्रवास कर रहा है | राकेश पटेल की कविताएँ उस तह तक जाती है और वे ऐसे तमाम प्रश्नों को अपनी कविताओं में उठाते हैं |

मजदूर आज मजबूर नहीं है | वे तो हमारी विरासत के वे सच्चे धरोहर है | आज उन्हें बचाना हमारे देश-समाज के लोगों का कर्तव्य होना चाहिए | राकेश ‘कबीर’ की कविताओं में वह सामाजिक-दृष्टि है, जो अपने दौर की राजनीतिक परिघटनाओं की बहुत सख्ती से छानबीन करती है | उनकी कविता ‘मजदूर-दिवस’ में देश के मजदूरों की स्थिति और उनका बाहरी दुनिया, सत्ता, प्रशासन के प्रति भय को देखा जा सकता है –

‘आज न काम है

न पसीना बहाने का मौका है

तंग कोठरियों में/भूख और तन्हाई पसरी है

बाहर पुलिस और लाठी का खौफ है

अंदर खाली बर्तन और पेट की जुगलबंदी है |’

कवि की लेखनी सिर्फ इस पीड़ा तक ही सिमित नहीं है | उनका संवेदनशील मन मानवीय समस्याओं के साथ-साथ प्रकृति से भी बेहद लगाव रखता है और उतना ही सजगता के साथ प्रकृति समस्याओं को अपनी कविताओं में वे उठाते हैं | कवि का बचपन गाँव में व्यतीत होने के कारण वे प्रकृति को मानव जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हैं |

आज जिस तरह से मानव और प्रकृति के बीच का आपसी संतुलन बिगड़ा है | वह आने वाले समय के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा है | कवि अपनी कविताओं में मानव जीवन को प्रकृति और प्रकृति को मानव जीवन से बहुत करीबी नाता जोड़ते दिखाई देते हैं |

उनकी कविताओं में जो सामाजिक-राजनितिक दृष्टि है, वह समकालीन घटनाओं की सख्ती से छानबीन करती है | उनकी कविताओं में प्रकृति एक बड़ा अवलंबन बनकर आया है | लेकिन जिस तरह से आज देश-दुनिया में प्रकृति का दोहन हो रहा है | उससे कवि का मन क्षुब्द हो उठता है | वे अपनी कविता ‘कुदरत की चकबंदी’ में लिखते हैं –

‘कुदरत की चकबंदी के नक़्शे के

किसी कोने को फोड़ने या रंगने की कोशिश

गुनाह होगा कायनात के खिलाफ

जिसकी माफ़ी कानून के किसी किताब में न होगा |’

कवि राकेश ‘कबीर’ अपनी कविताओं के माध्यम से अतीत, वर्तमान और भविष्य की संभावनाओं के असार को बखूबी जीते हैं | उनकी लेखनी की धार इतनी व्यापक और तेज-तरार है कि वे आने वाले भविष्य के खतरे को भी अपनी कविता ‘कुछ दिनों से’ में इंगित कर देते हैं –

‘पता नहीं क्यूँ/कुछ दिनों से

खतरे की बदबू आती है

आवारा हवा के साथ

हर दिशा से मुसलसल |’

एक तरफ कवि अपनी कविताओं में तमाम तरह की समाज में व्यापत विसंगतियों, कुरीतियों को देख उदास भी होता है | क्योंकि कवि अपनी कविताओं के माध्यम से समाज में बदलाव का आह्वाहन तो करता है, लेकिन जब हमारे समाज के लोग उसपर पूरी तरह मुक्कमल नहीं होते तो कवि के अन्दर एक उदासी सी दिखाई पड़ने लगती है जो उनकी कविता में देखी जा सकती है –

‘कोई काम नहीं है/काम जैसा बेसक

पर पोर-पोर में थाकान है

अपने घर पर ही है, लेकिन परेशां है हर इंशान

इन सूखे हुए दिनों में

कवि की कविता उदास है |’

राकेश ‘कबीर’ मनुष्यता के वह युवा कवि हैं जो अपने भीतर समाज और राजनीति बदलावों को लेकर गहरी बैचनी लिए हुए है | जिसके भीतर एक अनगढ़ता, जिंदा मिज़ाज और गर्मजोशी इंसानियत है | जो आज के जीवन को उसे गझिन रंगों में उकेरना चाहता है | मसलन उनकी कविता कल की उम्मीदों से भरा हुआ दिखाई देता है –

‘नदियाँ बहती रहेंगी/बादल छायेगें भी

और बरसेंगे भी/पानी एकजुट होगा

धार भी बनेगी/नदी भी बहेगी

वह अपनी राह/खुद खोज लेगी |

धरती के सिने में/तूफान भी उठेंगे

उसके पत्थर से कठोर/दिल पिघलेंगे भी

और शीतल पानी भी निकलेगा

नदियाँ अपनी रास्ते जाएँगी भी/उनका रास्ता कौन रोकेगा |’

आज जैसा युग है, जैसी व्यवस्था है, जीवन है, इस संदर्भ में राकेश ‘कबीर’ की कविताओं को देखें तो उनकी कविताओं की सार्थकता स्वयंमेव सिद्ध होता दिखाई देता है | समकालीन हिंदी कवियों में राकेश ‘कबीर’ अपने चारों ओर की व्यवस्था में मामूली आदमी की नियति को पहचानने वाला कवि हैं | उनकी लेखनी का अपना एक ख़ास मिजाज और तेवर है |

जिसे पढ़ते हुए पता चलता है कि कवि  राकेश ‘कबीर’ का रचना संसार अत्यंत समृद्ध एवं विस्तृत है | सामाजिक यथार्थों और विसंगतियों को समेटने और भेदने में उनकी काव्य दृष्टि सक्षम है | कहा जा सकता है कि कवि राकेश ‘कबीर’ की कविताएँ देश-समाज की निर्मम व्यवस्था, सामाजिक-राजनीतिक विसंगतियों के विरुद्ध न केवल हमें संघर्ष करने के लिए तैयार करती है, अपितु जीवंत उर्जा के साथ सामाजिक वेदना को भी प्रस्तुत करती हुई एक लड़ते हुए मनुष्य की उम्मीद और उत्साह को भरती हुई भी दिखाई देती है |

आधार ग्रंथ

  • ‘कबीर’ राकेश ‘नदियाँ बहती रहेंगी’ कविता संग्रह  
  • ‘कबीर’ राकेश ‘कुँवरवर्ती कैसे बहे’ कविता संग्रह
  • फेसबुक पेज राकेश पटेल                                                 

लेखक बृजेश प्रसाद, जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी से एमए, गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय से एमफिल, प्रेसीडेंसी यूनिवर्सिटी कोलकाता से पीएचडी कर रहे हैं। (मोबाईल नम्बर : 7011645739)



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